त्याग की मूर्ति महर्षि दधीचि, जानिए 16 वर्ष तक क्यों नही रहता शनि का प्रकोप !
प्राचीन भारतवर्ष के परम तपस्वी और ज्ञानी महर्षियों में से एक है महर्षि ‘दधीचि’ उनकी पत्नी का नाम ‘गभस्तिनी’ था. और उनके पुत्र का नाम पिप्पलाद था.
महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे. अहंकार तो उन्हें छू भी नहीं पाया था. वे सदा दूसरों का हित करना ही अपना परम धर्म समझते थे. उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे. गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था. जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता था, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे. यूँ तो ‘भारतीय इतिहास’ में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे.
त्याग की मूर्ति महर्षि दधीचि
समस्त प्राणी अपने लिए जीते हैं सभी अपना भला चाहते हैं लेकिन कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जो दूसरों की सहायता, परोपकार और भलाई के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं. ऐसे ही महान परोपकारी महर्षियों में से एक हैं महर्षि ‘दधीचि’ जिनका नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता हैं. महर्षि दधीचि त्याग और तप की जीवन्त मूर्ति के प्रतिमान है.
एक बार वृत्रासुर नामक भयानक राक्षस तीनों लोकों में आतंक मचाता हुआ देवलोक जा पहुँचा. पर देवराज इन्द्र एवं सभी देवों के अस्त्र शस्त्र व्यर्थ हो गए और वृत्रासुर का कुछ भी नहीं कर पाए. तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा यह वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि द्वारा यज्ञ से उत्पन्न हुआ है. इसे किसी महान तपस्वी ऋषि के अस्थियों से बनाये हुए वज्र से मारा जा सकता है. और इस समय ऐसे एकमात्र महातपस्वी पृथ्वीलोक पर है और वो है ऋषि दधीचि. यह बात सुनकर देवराज इंद्र मौन रह गए कि जिसे उन्होंने इतना परेशान किया उनकी तपस्या में बाधा डाली लेकिन सहयोग वश उन्हें महर्षि दधीचि के आश्रम जाना पड़ा.
महर्षि दधीचि मंद मंद मुस्कराते हुए पूछे ” देवराज आप यहाँ ” देवराज इन्द्र ने सारी व्यथा महर्षि दधीचि को बताई जिसके बाद ऋषि दधीचि बोले बस इतनी सी बात मेरे जीवन का इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा यदि यह विश्व शांति में सहयोग दे , शरीर तो नश्वर है आज नहीं तो कल जाना है. यह कहकर ऋषि दधीचि समाधिस्थ हो गए और ब्रह्मलीन हो गए. महर्षि दधीचि के अस्थियों से बने वज्र से देवराज इन्द्र और अन्य देवों ने वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर पुनः सर्वत्र शांति की स्थापना की. महर्षि दधीचि के जीवन पर कबीर दास जी ने लिखा हैं.
वृक्ष कबहूँ ना फल भखै , नदी न पिये नीर
परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर
अर्थात जिस प्रकार वृक्ष कभी अपना फल स्वयं नही खाते और नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती. उसी प्रकार सच्चे साधु परोपकार के लिए ही जन्म लेते है.
दधीचि पुत्र ‘पिप्पलाद’
पिप्पलाद महर्षि दधीचि के पुत्र थे. ‘पिप्पलाद’ का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘पीपल के पेड़ के पत्ते खाकर जीवित रहने वाला. ‘ संस्कृत वाक्य कोश के प्रणेता डॉक्टर श्रीधर भास्कर वर्णेकर के अनुसार पिप्पलाद उच्च कोटि के एक ऋषि थे. देवताओं और दानवों के बीच हुए युद्ध के पश्चात पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहाँ पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धारा छोड़ी थी. अत: उस स्थान को ‘दुग्धेश्वर’ कहा जाने लगा. पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे, इसलिए उसे ‘पिप्पलाद तीर्थ’ भी कहते हैं.
दधीचि के समाधि के समय उनकी पत्नी गभस्तिनी गर्भवती थी तथा अन्यत्र रहती थी. पति के निधन का समाचार विदित होते ही उन्होंने अपना पेट चीरकर गर्भ को बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखा. इसके पश्चात् वे भी सती हो गईं. ऐसा माना जाता हैं कि गभस्तिनी के इस गर्भ का वृक्षों ने संरक्षण किया. आगे चलकर इस गर्भ से जो शिशु बाहर निकला वही पिप्पलाद कहलाया.
शनि प्रकोप 16 वर्ष पश्चात ही क्यों?
शनि कथा के अनुसार पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? जन्म होते ही मेरी माता भी सती हो गई और बाल्यकाल में ही मैं अनाथ होकर कष्ट झेलने लगा. यह सुनकर देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा हुआ है. पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए और कहने लगे की शनि देव नवजात शिशुओं को भी नहीं छोड़ते है. उन्हें इतना अहंकार है. तब एक दिन उनका सामना शनि से हो गया तो ऋर्षि पिप्पलाद ने अपना ब्रह्मदंड उठाया और उससे शनि पर प्रहार किया. शनिदेव ब्रह्मदंड का प्रहार नहीं सह सकते थे इसलिए वे उससे डर कर भागने लगे. तीनों लोको की परिक्रमा करने के बाद भी ब्रह्मदंड ने शनिदेव का पीछा नहीं छोड़ा और ब्रह्म दंड के प्रहार से शनिदेव लंगड़े हो गए.
देवताओं ने पिप्पलाद मुनि से शनिदेव को क्षमा करने के लिए विनती की तब पिप्पलाद मुनि से शनिदेव को क्षमा को कर दिया. देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ऋषि ने शनिदेव को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे. ऐसा मानना हैं कि तभी से पिप्पलाद ऋषि का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है.