हरे कृष्णा

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष: जब दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण को जंजीर में बाँधने के आदेश दिए थे

भगवान श्रीकृष्ण (Shri Krishna) का जन्मदिवस, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (Shri Krishna Janmashtami) इस वर्ष 30 अगस्त, सोमवार को मनाया जा रहा है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने द्वापरयुग में धरती पर जन्म लिया था। श्रीकृष्ण के भक्त इस दिन को प्रत्येक वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में  बड़े धूम-धाम से मनाते हैं।

इस वर्ष  भगवान श्रीकृष्ण का 5247वां जन्मोत्सव मनाया जाएगा। इस दिन घरों और मंदिरों में विशेष रूप से सजावट की जाती है। कृष्ण भक्त इस दिन उपवास भी रखते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण, माता देवकी, वासुदेव, बलदेव, नन्द, यशोदा आदि देवी, देवताओं की विशेष रूप से पूजा अर्चना की जाती है।

जब दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण को जंजीर में बाँधने के आदेश दिए थे-

भगवान विष्णु के आंठवें अवतार, तीनों लोक के स्वामी भगवान श्री कृष्ण को अहंकार और लोभ में डूबे हुए दुर्योधन ने भरे दरबार में बंदी बनाने का आदेश दे दिया था। जब कृष्ण दुर्योधन की सभा में शांति दूत बनकर जाते हैं और पांडवों के लिए मात्र पांच गांव की मांग करते हैं। उस पर भी वह मना कर देता है और युद्ध के लिए अडिग रहता है। दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण को ही बंदी बनाने का आदेश दे देता है।

इस प्रसंग को राष्ट्रकवि ‘रामधारी सिंह दिनकर’ ने अपनी कविता ‘कृष्ण की चेतावनी’ में बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं।

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

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