कम अवसर मिलने के कारण जोमाटो में 67% सवर्ण हिन्दू बतौर डिलीवरी बॉय कर रहे है नौकरी
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नई दिल्ली: पिछले दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था में अस्थायी नौकरियों की साझेदारी में वृद्धि देखी गई है, जिससे स्विगी, ओला, उबर, ज़ोमैटो, अर्बन क्लैप, आदि कंपनियों के उदय में मदद मिली है। इन कंपनियों में अस्थायी और ऑन डिमांड काम होता है, इनमें कर्मचारी जब भी जितने घंटे चाहें कार्य कर सकते हैं।
डिलीवरी अधिकारियों का सर्वेक्षण करने वाली एक टीआईएसएस रिपोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में कुल 158 डिलीवरी व्यक्तियों के साक्षात्कार में पाया कि, अधिकांश डिलीवरी बॉय (85.4%) हिंदू थे, और दो-तिहाई हिंदू (67.1%) सवर्ण थे। डिलीवरी बॉय में से केवल 1/6 (14.8%) अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग से थे।
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रिपोर्ट में पाया गया है कि डिलीवरी बॉय की नौकरी के लिए एक दोपहिया वाहन और एक स्मार्टफोन होना आवश्यक होता है। डिलीवरी बॉय में से, 86% एससी/एसटी के पास दोपहिया वाहन और एक स्मार्टफोन पहले से था, जबकि 85% ओबीसी और केवल 83% सवर्णों के पास ही दोपहिया वाहन और एक स्मार्टफोन पहले से था।
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एक अन्य TISS अध्ययन में हैदराबाद और कोलकाता में ड्राइवर्स का सर्वे करते हुए पाया गया कि, साक्षात्कार किए गए ड्राइवर भागीदारों में से 80% हिंदू थे और उनमे से 70% सामान्य श्रेणी या सवर्ण थे।
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इस तरह की नौकरियों में कर्मचारियों के लिए काम करने की स्थिति को तनावपूर्ण और कठिन माना जाता है। पूर्णकालिक श्रेणी में काम करने वाले डिलेवरी बॉय का साक्षात्कार कर पाया गया कि उनमें से 47%, दिन में 12 घंटे से अधिक काम करते हैं। जबकि 18% डिलेवरी बॉय 15 घंटे से अधिक कार्य करते हैं। पार्ट टाइम के तौर पर कार्य करने वाले 42% डिलेवरी बॉय 12 घंटे से अधिक काम करते हैं।
0-8 घंटे/दिन काम करने वाले 6000- 12000 रुपये के बीच कमाते हैं। 8-12 घंटे/ दिन काम करने वाले 25000 रुपये तक कमाते हैं। जबकि 12 घंटे से ऊपर काम करने वाले 35000 रुपये तक कमाते हैं। अधिकांश कर्मचारी बीमा प्राप्त करने के विभिन्न तरीकों से भी अनजान हैं, जिसके परिणामस्वरूप सर्वेक्षण के नमूने में से 29 बीमा दावेदारों में से सिर्फ 1 को कर्मचारी बीमा का लाभ मिला।
ओला, ऊबर जैसी कंपनियों के साथ चालक-भागीदारों के लिए काम की स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। क्योंकि चालक-भागीदार अपने परिवार का सपोर्ट करने के लिए दिन में 12 घंटे से अधिक और सप्ताह में 6 दिन से अधिक काम करते हैं। वे थोड़ा अधिक कमाने के लिए अधिक घंटे काम करते है, चालक-भागीदारों के लिए टिके रहना मुश्किल हो जाता है क्योंकि उन पर केवल शारीरिक दबाव नहीं होता है; बल्कि आर्थिक और मानसिक दबाव भी उन पर कहर बरपा रहा होता है। इसके अलावा, चालक-साझेदारों को अपमानजनक ग्राहकों और स्थानीय अधिकारियों (आरटीओ/पुलिस) से भी निबटना पड़ता है।
दशकों के कोटा-आधारित आरक्षण प्रणाली और सरकारी संस्थानों में व्यवस्थित तरीके से अगड़ी जातियों को हाशिए पर भेजे जाने से बढ़ती हुई कम वेतन वाली ब्लू-कॉलर नौकरियां भी बेरोजगार युवाओं के लिए आकर्षण का विषय हो गई हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है क्योंकि सरकार न तो इसे पहचान रही है और न ही सवर्णों की मदद करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठा रही है।