फांसी देने वाला जज बिस्मिल के जवाब ‘सम्राट होने के लिए डिग्री जरूरी नहीं’ से भड़ उठा था !
स्वतंत्रता संग्राम के 3 नायक अशफ़ाक़, ठाकुर रोशन, व बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को ही ब्रिटिशों नें फांसी दी थी, उस वक्त भी तीनों को मौत का डर नहीं बल्कि जुबां पर था वन्देमातरम्
नईदिल्ली : शहीदों के घर से बड़ा कोई तीर्थस्थल इस धरती में नहीं हो सकता, तो आज ऐसा ही एक दिन है जब अपने भारत माता के सपूतों की कुर्बानी को याद कर रहे हैं | सर्दी का मौसम था, 19 दिसंबर की तारीख और 1927 का साल जब 3 क्रांतिकारियों बिस्मिल, अशफ़ाक़ व ठाकुर रोशन को क्रूर फिरंगियों नें फांसी के तख्ते पर लटका दिया था |
चेहरे पर मुस्कान, जुबां पर वन्देमातरम् और हंसते हुए दे दी शहादत :
काकोरी व मैनपुरी काण्ड में शामिल देश के 3 स्वतंत्रता सेनानियों बिस्मिल, अशफ़ाक़ व ठाकुर रोशन पर लगभग दो सालों से मुकदमा चल रहा था लेकिन जब 19 दिसंबर की तारीख आई तब तीनों को रात भर रोज की तरह नींद न आई | लेकिन हमेशा की तरह सुबह उठे और उस वक्त भी माथे में बिल्कुल भी सिकन नहीं थी कि आज वो जिंदगी का आखिरी सूरज देख रहे हैं | तख्ते पर खड़े हुए थे, तीनों की जुबां से सिर्फ़ वन्देमातरम् ही निकल रहा था | पूरा माहौल गमगीन था लेकिन उनके चेहरे पर अजब सी मुस्कान थी | और भारत माता की जय बोलते हुए तीनों गले मिले और फिर देश की माटी का कर्ज उतारने के लिए झूल गए फांसी पर |
अशफ़ाक़ की शख्सियत पर एक झलक :
ब्रिटिश राज के शाहजहाँपुर (वर्तमान शहीदगढ़) में जन्में अशफ़ाक़ उल्ला खान को बचपन से ही देश के लिए मर मिटने का जुनून सवार रहता था | घर वाले प्यार से उन्हें अच्छू कहकर बुलाते थे, उनकी दोस्ती पंडित बिस्मिल से उनके बड़े भाई द्वारा हुई थी उस वक्त बिस्मिल एक गुप्त मुलाक़ात कर रहे थे अचानक उस सभा में अशफ़ाक़ भी पहुंच गए | हालांकि फिर उनसे मिलने के लिए बिस्मिल नें उन्हें आर्य समाज मंदिर में बुलाया था लेकिन घर वालों नें नहीं माना | खैर घ वालों के मना करने पर भी अशफ़ाक़ पंडित जी से मिलने पहुंचे | और उनकी दोस्ती आजीवन निर्विवाद रही जो हिंदू-मुस्लिम एकता की काबिलेतारीफ मिसालों में से ऊंचे दर्जे की थी |
रामप्रसाद थे ब्राह्मण लेकिन उपनाम उर्दू भी था :
रामप्रसाद का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था लेकिन वो अपने नाम के पीछे बिस्मिल भी लिखते थे जोकि एक उर्दू शब्द है और इसका मतलब होता है ” जिसकी आत्मा आहत हुई हो ” | महज 19 साल की उम्र ,में वो आजादी के संघर्ष में कूद गए थे और 30 साल की छोटी सी जिंदगी में ही देश के लिए अपनी कुर्बानी देकर चले गए | इस दौरान उन्होंने 11 किताबें लिखी जिनसे मिले पैसे को उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ विरोध करने में लगाया | फांसी होने वाली थी उन्हें एक सरकारी वकील दिया गया, उन्होंने मना कर दिया और अपनी पैरवी खुद ही की | चीफ़ कोर्ट में घंटों धाराप्रवाह अंग्रेजी में उन्होंने बहस की | जज यह देखकर चकित था तो उसने बिस्मिल से पूंछा ” रामप्रसाद ! तुमने किस विश्विद्यालय से कानून की डिग्री ली है ” ?
पंडित जी नें सीधे मुंह जबाब दिया कि ” जज साहब ! सम्राट बनने के लिए किसी डिग्री की जरूरत नहीं होती ” |
ठाकुर साहब की खूबियों पर एक नजर :
एक अजब संयोग ही था तीनों शहीदों का जन्मस्थान यूपी का शाहजहांपुर ही था, ठाकुर रोशन सिंह पंडित जी की तरह एक बेहतरीन शायर थे लेखक और साथ ही निशानेबाजी में तो उनका कोई तोड़ ही नहीं था | ठाकुर जी आसमान में उडती चिड़िया को भी निशाना बना देते थे | जिस दिन फांसी होनी थी उड़ दिन वो सुबह उठे और स्नानादि किया और फिर गीता पाठ किया और इसके बाद खुद से ही जेल पहरेदार से बोले चलो | पहरेदार चकित रह गया कि “ये आदमी है या भगवान” ! फिर हाँथ में गीता लिए चल दिए फांसी के तख्ते की तरफ और वन्देमातरम् बोलकर बन गए अमर शहीद |