दलित व्यक्ति से शादी करके जाति बदलने पर भी नहीं मिल सकता आरक्षण : सुप्रीम कोर्ट

2018 के KV स्कूल की उप-प्राचार्य मामले में सुप्रीम कोर्ट नें की थी अहम टिप्पणी, "जाति जन्म से निर्धारित होती है न कि शादी से...!"

नईदिल्ली : यदि दलित से शादी करके कोई जाति बदल लेता है उसके बावजूद भी उसे आरक्षण का फायदा नहीं मिल पाएगा, 2018 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट साफ़ कर चुका है |  

बरेली विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा की कथित दलित युवक अजितेश से शादी करने के बाद फलाना दिखाना टीम के पास लगातार कई संदेश आ रहे हैं और उनमें एक प्रश्न बार बार लोगों नें पूछा है कि “क्या सामान्य वर्ग की कोई लड़की दलित व्यक्ति से शादी कर लेगी तो उसे आरक्षण का फ़ायदा मिलेगा, और मिलेगा तो क्यों या नहीं मिलेगा तो क्यों ?”

जब लोगों नें इसका हल जानने के लिए काफ़ी अनुरोध किया तो हमारी टीम नें इसके लिए आरक्षण के केस लड़ने वाले सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट से राय जानना उचित समझा | इसके लिए हमारी टीम नें EWS, मराठा, MP ओबीसी आरक्षण जैसे जातिगत व अन्य आरक्षण के खिलाफ़ सुप्रीमकोर्ट/हाईकोर्ट में याचिकाएं डालने वाली यूथ फ़ॉर इक्विलिटी की लीगल सेल से संपर्क किया तो हमें कई महत्वपूर्ण बिंदू पता चलें और उन्होंने साल 2018 के एक फ़ैसले को संदर्भित किया |

जब हमनें इस केस को लेकर रिसर्च की तो इस केस के लिए हमनें अंग्रेजी अख़बार टाईम्स ऑफ़ इंडिया के आर्काइव से फ़ैसले की डिटेल का गहन अध्ययन किया | जो चीज हमें पूरे केस में मिली उसे हम आपको आसान शब्दों में उदाहरण सहित समझा रहे हैं |

सुप्रीमकोर्ट नें जनवरी 2018 में सामान्य श्रेणी के एक शिक्षक की नियुक्ति को अलग करते हुए कहा था कि “एक व्यक्ति की जाति अपरिवर्तनीय है और शादी के बाद बदल नहीं सकती है |

वो एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति के साथ विवाहित थी लेकिन 21 साल पहले उसने केन्द्रीय विद्यालय में नियुक्त होने के लिए आरक्षण लिया था | |

न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति एम एम शांतनगौदर की पीठ ने कहा कि महिला, जो स्कूल में उप-प्राचार्य के पद पर पहुंच गई थी, उसे आरक्षण का अधिकार नहीं था क्योंकि वह एक उच्च जाति के परिवार में पैदा हुई थी ।

“कोई भी विवाद नहीं हो सकता है कि जाति जन्म से निर्धारित होती है और अनुसूचित जाति के व्यक्ति के साथ विवाह द्वारा जाति को नहीं बदला जा सकता है। निस्संदेह, वह अग्रवाल परिवार में पैदा हुई थी, जो सामान्य वर्ग में आती है और अनुसूचित जाति में नहीं। केवल इसलिए कि उनके पति अनुसूचित जाति की श्रेणी के हैं, उन्हें एक जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि उनकी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में दिखाया गया था |”

1991 में, बुलंदशहर के जिला मजिस्ट्रेट ने महिला को एक जाति प्रमाण पत्र जारी किया, जिससे उसकी पहचान अनुसूचित जाति के सदस्य के रूप में हुई। उसकी शैक्षणिक योग्यता और जाति प्रमाण पत्र के आधार पर, उसे 1993 में केंद्रीय विद्यालय, पठानकोट में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। अपनी सेवा के दौरान उन्होंने अपनी M.Ed पूरी की।

उनकी नियुक्ति के दो दशक बाद शिकायत दर्ज की गई थी कि उन्होंने अवैध रूप से आरक्षण का लाभ लिया था। एक जांच के बाद स्थानीय अधिकारियों ने उसका जाति प्रमाण पत्र रद्द कर दिया और केन्द्रीय विद्यालय ने 2015 में उसकी नौकरी समाप्त कर दी।

केवी के फैसले को चुनौती देते हुए, उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसने उसकी सेवा समाप्ति वाले फ़ैसले को ही को बरकरार रखा था बाद में वो सुप्रीमकोर्ट  तक पहुंच गई ।

शीर्ष अदालत ने दो दशक से अधिक समय तक बेदाग सेवा को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट के फैसले को संशोधित करते हुए कहा कि सेवा से समाप्ति का आदेश अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए एक माना जाएगा।

“उदारता दिखाते हुए हमने यह भी ध्यान में रखा है कि उसने जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए किसी भी अधिकारियों के सामने न तो धोखाधड़ी की है और न ही गलत तरीके से प्रस्तुत किया है | जबकि जाति प्रमाण पत्र के आधार पर सेवा जारी है। पीठ ने कहा था कि जब तक शिकायत दर्ज नहीं की गई थी, तब तक उसके खिलाफ कोई सवाल नहीं उठाया गया, जबकि अधिकारियों ने हाई स्कूल सर्टिफिकेट, अंकसूची आदि को उसकी जाति को शुरु में अग्रवाल के रूप में दिखाते हुए देखा था |”

वहीं इस फ़ैसले से एक बात काफ़ी स्पष्ट हो जाती है कि भले ही कोई जनरल लड़की दलित से शादी करले लेकिन उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता और दूसरी बात यह भी है कि आरक्षण का लाभ उसके बच्चों को जरूर मिल सकता है क्योंकि वो दलित जाति में पैदा हुआ है और समाज में जाति पिता की ही मानी जाती है न कि माता की |